१६ जनवरी, १९५७

 

         ''मनुष्य पहले अंधेकी तरह ढूंढता है और यह भी नहीं जानता कि वह अपने दिव्य स्वरूपको ढूंढ रहा है; क्योंकि वह भौतिक प्रकृतिकी तामसिकतासे अपनी खोज प्रारंभ करता है और जब देखने लगता है तब भी उस प्रकाशसे देरतक चुधियाया रहता है जो उसके अंदर बढ़ रहा है । भगवान् भी मनुष्यकी खोजका अस्पष्ट-सा उत्तर देते है । भगवान्, मांको टटोलनेवाले नन्हे बच्चेंके हाथोंके समान ही मनुष्यकी अंधताको खोजते हैं और उसमें आनंद लेते है ।',

 

(विचार और झांकियां)

 

 मधुर मां, यह कैसे हो सकता है कि कोई व्यक्ति किसी चीजको ख़ोजे और फिर भी उसे यह न मालूम हो कि वह किस चीज- को ढूंढ रहा हं?

 

तुम अनजाने ही बहुत-मी बंती विचारते, अनुभव करते, चाहते, यहांतक कि करने .मी हो । क्या तुम अपने संबंधमें और तुम्हारे अंदर जो क्रिया हों -चाही है उस सबके संबंधमें पूर्णतया सचेतन हों? -- बिलकुल भी नहीं! उदाहरणके लिये, यदि अचानक अप्रत्याशित रूपसे किसी खांसी समयमें मैं तुमरे मुछ : ' 'तम किस विगयमें सोच रहे हों?'' तो तुम्हारा जवाब सौ- मे ए वार यही होगा : ' 'मैं नह जानता! '' और इसी प्रकार यदि मैं एक दूसरा ऐसा ही प्रश्न करूं : ' 'तुम क्या चाहते हो?'' तो नुम यही कहोगे : ' 'मुझे पता नहीं क्या चाहता हू । '' और ' 'तुम क्या अनुभव कर रहे हो?'' - ' 'मैं नहीं जानता । '' ऐसा सुनिश्चित प्रश्न

 

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केवल उन्हीं लोगोंसे पूछा जा सकता है जो आश्रम-निरीक्षण करनेके आहंरी है, अपनी जीवनचर्याके विषयमें जागरूक है, जिनका म्यान' इस बात- को जाननेकी आवश्यकतापर केंद्रित है कि उनके अंदर क्या पेयश्र रमता वैर और वही लोग इसका जवाब तुरंत दे सकते है । हा, जीवनके कूर? द्रुष्टोंतोंमें मनुप्य उन बातोंमें तन्मय हो जाता है जिन्हें अनुभव कन्ना, विचारता और चाहता वैद्य और तब वह कह सकता है : ''करा, मैं यह चाहता नए, मैं इसके संबंधमें विचार रहा हू, मैं इसका अनुभव करना हू,'' पर ऐसा जीवनके कुछेक क्षणोंमें ही होता है, सारे सनय नइद्रइा । तुमने कभी इसपर ध्यान दिया है (इ नहीं दिया?

 

     अच्छा, तो मनुष्य यथार्थमें क्या है, इस बातको खोजना, वह पृथ्वीपर क्यों है, इसे ढूंढ निकालना, मनुष्यके भौतिक अस्तित्वका,  उसकी उपस्थितिका, उसके इस आकार-प्रकारका, इस सत्ताका सच्चा प्रयोजन क्या है... अधिकतर मनुष्य इन प्रश्नोंको अपनेसे एक बार मी पूछे विना जिये जा रहे है! थोड़े-से उत्कृष्ट लोग ही यह सवाल गानेसे रसपूर्वक करते हैं और उससे भी कम लोग इसका जवाब पानेके लिये काम कग्ना शुरू करते है । क्योंकि जबतक सौभाग्यवश किसी जानकारसे भेंट नहीं होती तबतक इस बातको जान पाना इतना सरल नहीं है । उदाहरणके लिये, मान लो कि तुम्हारे हाथमें श्रीअरविंद कोई किताब कभी न आयी होती, न ही ऐसे लेखकों य दार्शनिनगें या मतोंमेंसे किसीकी, जिहोने अपना जीवन इस खोजके अर्पण कर दिया, यदि तुम गाहगराग जगन्मे लग्नों- करोड़ों साधारण लोगोंकी तरह रहते हो जिन्होंने कभी विशोक अवसरोंको छोड़कर कुछ दवों और धर्मोके सिवाय कुछ नहीं सुना -- ओर वह पार मी श्रद्धाकी अपेक्षा अभ्यास अद्वइवक होता है, और आजकल वह मी हमेशा नहीं, विरप्ने अवसरोंपर -- और वह धर्म भी तुम्हें कम ही यह बताता है कि तुम इस धरतीपर क्यों आये हों '... तव व्यक्ति इसके संबंधमें सोचनेकी बात भी मनमें नहीं लाता । मनुप्य रोजाना अपने दैनिन्स को करते हुए जीवन बिताता है । बन्द-पतनमें वह रखाने और खेलनेके सम्बन्ध- मे ही 'नोचता है और कुछ समय वाद पढ़नेके विषयमें, उसके बाद रिहर जीवनकी सभी परिस्थितियोके बारेमें विचारने लगता हैं । ग्ग्पितु लेनेमे इस समस्याको पूछना, इस समस्याको अदाने सामने रचना जोर मागेसे कहना : ''आखिर, मैं क्यों हूं ' '' ऐसा कितने नशे करते है? पूर-पौत्र लोगोंको यह विचार तभी गात है जव उनके सम्मुख कोई दलाल विपत्ति आ पड़ती है । जव वे अपने किसी प्रिय व्यक्तिको मरने हुए देरवता है या उन्हेंs किन्हीं विशेष दुःखद परिस्थितियोंमें डाल दिया जाता हैं, तब

 

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यदि वे यापन बुद्धिमान हों तो अपनी ओर मुड़कर अपने मनमें कहते है : ' 'किन्तु, वह दुखदायक स्थिति वस्तुत: क्या है  हम गुजर रहे है हाट .मुमका क्या लाभ है और क्या हुश है? ''

 

          और मनुप्य उसी द्रणसे  ज्ञानकी खोज शुरू कर देता है ।

 

      और विक्रीत जब खोज लेता है, जैसा कि वह कहता है, समझ गये, जब वह यह खोज त्रेता है कि मनुष्यमें एक दिव्य व्यक्तित्व है और यह भी कि उसे इम दिव्य व्यक्तित्वको खोजना होगा... यह बुद्धि बहुत देरके बाद आती इ, और फिर भी, सबके बावजूद, इस भौतिक शरीरमें जन्म लेनेके कालसे ही, इस मतामें, इनकी गहराईमें, चैत्य विद्यमान होता है जो सारी सत्ताका परिपुर्नाताकी ओर आगे बढाता है । किन्तु इसे, इस चैत्य सत्ताको कौन जानता और पहचानता है ' यह ज्ञान भी किन्हीं विशेष परिस्थितियोंमें ही आता त्रै, और दुर्भाग्यसे अधिकतर ये परिस्थितियां दुःखपूर्ण ही होती है अन्यथा मनुष्य बिना चिन्तन-मननके यों ही जिये  जाता है । और मनुष्यकी सत्ताकी गहगईमे यह चैत्य विद्यमान होता है और चेतनाको जागने और  पुनः स्थापित करने के लिये यत्न करता है, बार-बार यत्न करता है, यन्न करता ही रहता है । मनुष्य उसके बारेमें कुछ भी नहीं जानता ।

 

        बच्चे, तुम जव १०  मालके थे तो इस बातको जानते थे? नहीं, तुम जानने ने ' अच्छा, तब मी तुम्हारी सत्ताकी गहराईमें यह चैत्य सत्ता पन्ने- ग ही इम ण्कताको पान चाहती थी, इसे जाननेका यत्न कर रही थी । दायद यद्री बात तुम्हें यहा लें आपी ।

 

         जीवन बहुत-मी घटनाएं होती है औ-र मनुष्य अपनेसे पूछता तक नहीं कि वे क्यों हुई । मनुप्य उन्हें सामान्य रूपसे लेता है. यह ऐसी खै क्योंकि यह ए_gई ही है । यह जानना डब।- रोचक होगा कि मेरे इस सम्बन्-पमें वात करनेसे पहाड़ तुममें कितने लोगोंने अपनेसे पूछा था कि तुम यहा कैसे ज्यों गायें ?

 

          स्वभावत आधीक-से-अधिक बार इसका जवाब शायद बड़ा सरल होता हू. ''मेरे माना-पिता यहां हं इसलिये मैं रहता तह ।'' तो भी तुम यहां- जन्मे नहीं थी । कोई भी यहा नही जन्मा । तुम भी नही, नहीं? तुम बंगलौर- भी पैदा हुत ने । यहां कोई नहीं जन्मा ।. और फिर मी तुम सब यहां हो । तुमने गलेसे इसका कारण नहीं पूछा -- ऐसा था इसलिये ऐसा हुआ! और इस प्रकार अपासे पूछनेमे और एक ऐसा सतही जवाब जो इतना सन्तोपप्रद हों कि अन्तिम मान लिया जाय, देनेके बीचमें भी और अपनेको यह कहनेमें : ''कदाचित् यह किसी नियतिकी ओर मेरे जीवनके

 

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प्रयोजनके प्रति निर्देश करता है?''... यहांतक पहुंचने के लिये हमें कितना लम्बा रास्ता तय करना पड़ता है!

 

         और हरेकके लिये ऐसे कम या अधिक ऊपरी कारण होते हैं जो, इसके अलावा, बहुत महत्त्वके नहीं होते और हरेक वस्तुकी व्याख्या यथासंभव बिलकुल मामूली ढंगसे करते है, किन्तु इसका एक बहुत गहरा कारण है जिसने; सम्बन्धमें तुम अभी नहीं जानते हो । और क्या तुम लोगोंमें ऐसे बहुत-से व्यक्ति है जिनकी यह जानने ने बहुत रुचि है कि वे यहां क्यों आये हैं ? तुममें ऐसे कितने है जिन्होंने अपनेसे यह पूछा हों : '' मेरे यहां रहने का यथार्थ कारण क्रया हैं ?''

 

बच्चे, तुमने अपनेसे पूछा?

 

       मैंने आपसे एक बार

 

ओह, ठीक है । और तुम?

 

       मुझे याद नहीं ।

 

तुम्हें याद नहीं । और तुम?

 

       पहले नहीं, माताजी ।

 

पहले पूछा था, मधुर मां!

 

    और तुम?

 

पहले नही । अब बात बनती जा रही है । और तुम ?

 

      नहीं ।

 

नहीं ।... और .मैं अभी अन्य बहुत-से लोगोमे हूं पूछ सकती हू । मैं यह अच्छी तरह जानती हूं । जो लोग।. यहा जीवनका कुछ अनुभव लेनेके बाद आये है और यहा आए है क्योंकि वे आना चाहते थे, आनेके लिये सौ- तन कारण था, स्वभावतया टोप लोग ही. मुझे कह सकते खै : ' 'मैं यहां इस कारण आया हूं,'' वह कम-से-कम एक आशिक स्पप्टीकगग होगा । नो भी हों सकता है कि बसते अधिक सच्चा और गरारी कारण उनकी पवाड़ने- सें बच निकले, अथीत् वह वस्तु जो इस भागवत कार्यमें विशोष  रूपसे उप- लब्ध करनी है । इसके लिये वस्तुत: रास्तेकी बहुत सारी मंजिन्रे पार करनी होती है ।

 

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           असलमें, मनुप्य जब अपनी अन्तरात्माके सम्बन्धमें अभिज्ञ हो जाता है, अपने चितय पुरुषके माथ एक हो जाता है केवल तभी युग-युगान्तरोंमें होनेवाले उगके व्यक्तिगत विकासका चित्र उसकी आंखोंके सामने क्षण भरके लीये कौवा सकता है । तभी मनुष्यको, वस्तुतः, ज्ञान होना शुरू होता है .. उमसे पहले नही । मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि वारतवर तभी वह बहुत. रोचक बन जाता है । वह जीवनकी स्थितिको बदल देता है।

 

         किसी चीजको अस्पष्ट रूपसे अनुभव करना, किसी चीजकी, अर्थात् किसी शाकीतकी, क्रियाकी, आवेगकी, आकर्षणकी, किसी छूसी वस्तुकी एक अनिहिचका छाप पड़ना जो जीवनमें तुम्हें संचालित करती है -- परन्तु अब भी बहुत हल्की और अनिश्चित एवं धुधली है -- इसमें और एक स्पष्ट दर्शनमें, अन्न: निश्चित बोधमें, अपने जीवनके प्रयोजनको पूरी तरह समझनेमें बहुत अधिक भेद- है । और केवल उसी क्षण मनुष्य वस्तुओंको उनके यथार्थ लवरूपा 'देग्वना आरंभ करता है, उससे पहले नहीं । एकमात्र तभी मनुष्य अपनी नियतिके तन्नुका अनुसरण कर सकता है तथा अपने लक्ष्य एवं लक्ष्य- तक पहुँचनेके मार्गको स्पष्ट रूपसे देख सकता है । पर यह होता है केवल क्रमश: होनेवारे आन्तरिक जागरणके द्वारा ही, मानो नये क्षितिजोंमें अकस्मात् दरवाजे गुल जाते है -- यह सचमुच ही एक अधिक वास्तविक,  गभीर और अधिक स्थायी चेतनाका नव जन्म है ।

 

        तबतक तुम एक धुंधलकेमें, टटोलते हुए, ऐसी नियतिके भारके नीचे दबे रहते. हों जो कभी-कभी तुम्हें कुचल देती है और तुमपर यह प्रभाव डालती है कि तुम्हारा निर्माण अमुक ढंगसे ही हुआ है और उसके सम्बन्धमें तुम कूल्हा नही कर सकते । तुम जीवनके एक ऐसे बोझके तले दबे पडे खो जो तुमपर सवार रहता है और ऊपर उठकर उन सब तन्तुओंको, संचालन करनेवाले तारोंका, उन विभिन्न सूत्रोंको जो विभिन्न वस्तुओंको, प्रगति- की  छीमी क्रिया बाध देते है जो स्पष्ट होती हुई उपलव्धिकी ओर अइग्रसर करती है, विभिन्न म्त्रोंको देखनेके स्थानपर तुम्हें जमीनपर रेंगनेको बता करना है ।

 

         मनुष्यको इस अर्द्ध चेतनामेमे कूदकर बाहर निकल आना चाहिये जिसे साधारणतया बिलकुल स्वाभाविक माना जाता है; --- वह तुम्हारे जीवनका 'सामान्य'' ढंग है और तुम उससे इतनी दूर भी नहीं हट जाते कि इस अनिश्चितता, इस मुस्पटटताकै अभावको देखकर आश्चर्य प्रकट कर सको; जव कि, इसके विपरीत, यह जानना कि व्यक्ति खोज- रहा है और उस खोज- को सचेतन हरिसे, स्वेच्छासे, अटल रहकर और विधिवत् करना एक ऐसी

 

स्थिति है जो वस्तुत: दुर्लभ लगभग 'असाधारण' है और फिर भी यथा जीवनमें, तो मनुष्य. इसी तरह शुरू करता द्रै ।

 

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